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कि थराद में जैन-वस्ती घट अवश्य गई थी, परन्तु इतनी अवश्य रही कि जहा प्रसिद्ध प्रसिद्ध गच्छों का निर्वाह प्राय: हो सकता था। लेखों में सब से अधिक लेख पिष्पलगच्छ के हैं, फिर पूर्णिमा, ब्रह्माण और तपागच्छों के अन्य गच्छों के लेखों से अधिक हैं । परन्तु यह तो स्पष्ट हैं कि थराद में लगभग वीश गच्छों के अनुयायियों के या उनके अनुरागियों के घर रहे हैं। जहाँ एक साथ १०-१५ गच्छों के घर मिलते हों, वह नगर उस काल में अवश्य समृद्ध और उमत ही माना जायगा। शताब्दिवार लेखों में अधिक लेख पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दि के हैं। जिसमें सोलहवीं शताब्दि के तो १६० लेख हैं। ये लेख विविध गच्छों के भिन्न भिम आचार्यों के एवं श्रावकों के नामों से संगर्मित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि थराद एक बार पुन: पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में समृद्ध, वैभवशाली
और धर्मकृत्य, व्यापार-वाणिज्य में आगे बढ़ गया था। लेखों में ७० लेख श्रीमालीज्ञाति के हैं। अतः यह भी सिद्ध है कि थराद में श्रीमालीज्ञाति के घर अधिक संख्या में थे। केवल लेखों की संख्या पर ही गच्छ, समृद्धि और ज्ञाति का लेखन किया गया हो, सो बात नहीं है। विभिन्न संवत् , विभिन्न श्रावक और भिन्न भिभ नाम के आचार्यों पर अधिक जोर रख कर ऐसा लिखा गया है।
विक्रमसं. १८६९ में थरादराज्य में भयंकर दुष्काल
"Aho Shrut Gyanam"