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का संकेत मान कर इन्होंने गाड़ी वहीं रोक दी और आशापूरी माता को वहीं प्रतिष्ठित की। नाड़ टूटी, इसलिये माता का नाम भी ' नाणदेवी ' पड़ गया, जो अभी तक चला आता है | नाणदेवी का उपरोक्त स्थान थराद से ईशान कोण में अर्ध-मील के अन्तर पर है। जैन जैनेतर सब ही लोग इसको मानते हैं ।
प्राचीन लोग शकुन, शुभ लक्षणों और संकेतों में अधिक विश्वास रखते थे । उपरोक्त भूमि पर उन्होंने कुत्तों के पीछे शशकों को दौड़ते हुए देखा। बस, उन्होंने भूमि को वीरप्रस बिनी समझा और वहीं पर बस गये। ग्राम का नाम थिरपालघरु के नाम के पीछे ' थिरपुर' रक्खा, जो आज थराद के नाम से विख्यात है ।
थराद के उत्तर में मारवाड़, पूर्व में पालनपुर, दक्षिण में सुईग्राम और पश्चिम में बाव है। बढ़ते बढ़ते धराद एक अति विशाल नगर बन गया । धरुवंश के चौहानक्षत्रियों का थराद पर ७६५ वर्ष तक अर्थात् विक्रम सं० १०१ से सं० ८६६ ( ईस्वीसन् ७८० ) तक राज्य रहा । धरुवंश के राजा, वीरवाड़ी एवं महात्मा मोहनदास के वंशजों के सदा आभारी रहे और ठेठ तक उनका अच्छा सम्मान रक्खा ।
"Aho Shrut Gyanam"