Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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निश्चयकाल अन्य द्रव्यों की पर्यायों के परिवर्तन का निमित्त कारण है। दूसरे शब्दों में सभी द्रव्यों की वर्तना या परिणमन की शक्ति ही द्रव्य काल या निश्चयकाल है। व्यवहार काल को समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि रूप कहा गया है। संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान सम्बन्धी जो काल व्यवहार है वह भी इसी से होता है। जैन परम्परा में व्यवहार, काल का आधार सूर्य या चन्द्र की गति ही मानी गई है, साथ ही यह भी माना गया है कि यह व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र तक ही सीमित है। देवलोक आदि में इसका व्यवहार मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा से ही है। मनुष्य क्षेत्र में ही समय, आवलिका, घटिका, प्रहर, रात-दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि का व्यवहार होता है। व्यक्तियों में बालक, युवा और वृद्ध अथवा नूतन, जीर्ण आदि का जो व्यवहार देखा जाता है वह सब भी काल के ही कारण हैं, वासनाकाल, शिक्षा काल, दीक्षा काल आदि की अपेक्षा से भी काल के अनेक भेद किये जाते हैं, किन्तु विस्तार भय से उन सबकी चर्चा यहाँ करना अपेक्षित नहीं है। इसी प्रकार कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रत्येक कर्म प्रकृति के सत्ता काल आदि की भी चर्चा जैनागमों में मिलती है।
संख्या की दृष्टि से अधिकांश जैन आचार्यों ने काल द्रव्य को एक नहीं, अपितु अनेक माना है। उनका कहना है कि धर्म, अधर्म, आकाश की तरह काल एक और अखण्ड द्रव्य नहीं हो सकता। काल द्रव्य अनेक हैं क्योंकि एक ही समय में विभिन्न व्यक्तियों में अथवा द्रव्यों में जो विभिन्न पर्यायों की उत्पति होती है, उन सबकी उत्पत्ति का निमित्त कारण एक ही काल नहीं हो सकता। अतः काल द्रव्य को अनेक या असंख्यात प्रदेशी द्रव्य मानना होगा। पुनः प्रत्येक पदार्थ की भूत, भविष्य की अपेक्षा से अनन्त पर्यायें होती है, और उन अनन्त पर्यायों के निमित्त अनन्त कालाणु होंगे, अतः कालाणु अनन्त माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि काल द्रव्य को असंख्य कहा गया किन्तु कालाणु अनन्त माने गये ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है कि काल द्रव्य लोकाकाश तक सीमित है और उसकी इस सीमितता की अपेक्षा से उसे अनन्त द्रव्य न कहकर असख्यात(ससीम) द्रव्य कहा गया। किन्तु जीव अनन्त है और उन अनन्त जीवों की भूत एवं भविष्य की अनन्त पर्यायें होती हैं, उन अनन्त पर्यायों में प्रत्येक का निमित्त एक कालाणु होता है अतः कालाणु अनन्त माने गये। सामान्य अवधारणा यह है कि प्रत्येक आत्मप्रदेशों पुद्गल परमाणु और आकाश प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान कालाणु स्थित रहते हैं- अतः कालाणु अनन्त हैं। राजवार्तिक आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कालाणुओं को अन्योन्य प्रवेश से रहित पृथक्-पृथक् असंचित दशा में लोकाकाश में स्थित माना गया है।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान