Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
समाप्त हुई है तथा सर्वत्र एक-एक प्रदेश अधिक कम से बढ़ना होता है। स्मरण रहे कि इन अल्पबहत्वों में लब्ध्यपर्याप्तक को उत्कृष्ट अवगाहना अप्रकृत रही है।
गो. जी. का यह सब विषय धवल पु. ११ पृष्ठ ५६ से ७४ (सूत्र ३१ से १६) नक से ग्रहण' किया हुआ है।
सूक्ष्म नि अपर्याप्तक अपनी जघन्य अवगाहना से उत्कृष्ट अवगाहना तक बढ़ता है। इसकी ३४ बिन्दी लिखी है। इसी तरह प्रथम से १६वीं पंक्ति तक के अपर्याप्त जीव अपनी-अपनी जघन्य से उत्कृष्ट अवगाहनाओं तक बढ़ते हैं। ये पंक्ति १ से पंक्ति १६ तक के जीव [ देखो प्रस्तुत चित्र ]सभी अपर्याप्तक हैं। इस मूल नन्थ के पृष्ठ १५४ पर जो चित्र है उसके तीन भाग हैं:-प्रथम व द्वितीय भाग ऊपर की ओर हैं। नीचे की ओर तृतीय भाग है । प्रथम भाग में अपर्याप्त (लब्ध्यपप्तिक) जीवों की जघन्य अवगाहनाऐं बतायी हैं। यह पृष्ठ १४३ से १४५ में प्रदर्शित ६४ अवगाहना स्थानों में से जो प्रादि के १६ स्थान हैं, उनका चित्र है। फिर मूल ग्रन्थ के पृ. १५४ के चित्र में उपरिम द्वितीय भाग का ग्राफ चित्र अपर्याप्तक |अर्थात निर्वत्यपर्याप्तक] जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना सम्बन्धी है। इसमें भी १६ अवगाहना स्थान आ गये हैं, जो ६४ स्थानों [देखें पृष्ठ १४३ से १४५ | में से निम्न संख्या के स्थान हैं:-१८ वां, २१ वां, २४ बां. २७ वाँ, ३० वाँ, ३३ वाँ, ३६ वाँ, ३६ वां, ४२ वां, ४५ वौ, ४८ वा तथा ५५ से ५९ वां। इस प्रकार प्रकृत ग्रन्थ के १५४ दें पृष्ठ के चित्र के ठपरिम भाग में १६ अपर्याप्त के जघन्य स्थान हैं तथा १६ ही अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थान हैं। इन ३२ स्थानों से जो चित्र बनता है वह है सम्मुख मुद्रित चित्र की १६ वीं पंक्ति तक का चित्रण ।
फिर पृष्ठ १५४ के चित्र में जो नीचे का भाग है अर्थात् तृतीय भाग है, वह मात्र पर्याप्त जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट अवगाहनाओं का है। इसमें ६४ स्थानों में से शेष ३२ स्थान प्रा गये हैं। ये स्थान ६४ स्थानों में निम्नलिखित संख्या के स्थान हैं:-१७, १९, २०, २२, २३, २५, २६, २८, २६, ३१, ३२, ३४, ३५, ३७, ३८, ४०, ४१, ४३, ४४, ४६,४७, ४६, ५०, ५१ से ५४ तथा ६० से ६४। यह चित्र नीने के भाग का है। प्रतः सम्मुख मुद्रित चित्र में १६ पंक्तियों से नीचे की
टिप्पण-अपनी तुझ्न बुद्धि से मुझे यह भासित होता है कि पृष्ठ १५४ पर मुद्रित चित्र (गो कि ध, ११/७१ में लिया है) मत्स्य-रचना का नहीं है, न ही वहाँ पर घ, ११ में] कहीं 'मस्त्य रचना" लिखा भी है। परन्तु वह नित्र तो ६४ ही अवगाहनानों को एक व्यवस्थित काम [पहले १६ अपर्याप्तों की जघन्म, फिर १६ अपर्याप्तों की उत्कृष्ट तथा नीचे सभी पर्याप्तों की जघन्य एवं उत्कृष्ट = ३२] मे मात्र ग्राफांकित किया गया है । उससे मुक्ति मत्स्य-रचना नो हमने जैसी यहां बतायी है, वह होती है। ऐसी ही रचना गो. जी, की कानड़ी तथा संस्कृत वृत्ति में भी बतायी है। मैंने उसका पूरा प्राधार लिया है।
प्रस्तुन ग्रन्थ के पृष्ठ १५४ पर प्रदत्त चित्र के अनुसार यदि प्रथम १६ स्थानों के क्रमशः असंख्यातगुगात्व का प्राकार बनाया जाये तथा मागे की शेष ४८ अवगाहनानों को यथाक्रम इस प्रकार के प्रागे रेस्त्रांकित किया जाये [याकार प्रदान किया जाये] तो बनने वाला आकार भी किसी मस्स्य रूप होबे, यह असम्भव नहीं है, क्योंकि सकल ब्रह्माण्ड में मत्स्मों (मछलियों के प्राश्चर्यकारी तथा विचित्र विविध प्राकार उपलब्ध होते है ।
[ २ ]