Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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प्रकार मात्र विवक्षा- भेद है, सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं पड़ता। (जयधवल १६:१६० तथा जनगजट १६-८-६२ ई०, २० न० मुख्तार सहारनपुर)
इन पाठ ममयों के समुद्घान में किस-किस समय कौन-कौनसा योग होता है, उसकी दर्शक तालिका इस प्रकार है:
* प्रष्टसमयिक समुद्घात की तालिका के
समय
समुद्घात
योग
प्रथम
दण्ड
औदारिक काय योग औदारिक मिश्र काय योग
कपाट
द्वितीय • तृतीय • चतुर्थ
प्रतर
कामरण काय योग
नोकपूरण
पंचम
प्रतर-मंथान
कपाद
औदारिक मिश्र काययोग औदारिक काय योग
सप्तम
दण्ड
• अष्टम
स्वस्थान-स्व गरीर में प्रवेण ।
[प्रा. पंचसंग्रह १६६ जीबसमास अधिकार, धवल ४/२६३, जयधवल १६/१६०, गो. क.५८७, क्षपणासार पृ. ४६६ गा. ६२७ राय चन्द्र शास्त्रमाला | शेष सब सुगम है।
(२) मत्स्य-रचना
प्रस्तुत चित्र (पृ०२१) तथा मूल ग्रन्थ के चित्र (पू. १५४) का सम्बन्धात्मक परिषय
सबसे पहले हम यह ध्यान में ले लें कि यहाँ कुल ६४ अवगाहना स्थान हैं जो प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ १४३ से १४५ तक आये हैं। इनमें प्रथम स्थान मु० निगोद अप० की जघन्य अवगाहना का है। दूसरा स्थान सू० वाय. अपर्याप्त का है .......... इत्यादि। इस तरह चलते-चलते ६४ वा अर्थात अन्तिम स्थान पंचन्द्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का है। अत: जहाँ यह कहा जाये कि बीसवाँ स्थान या पच्चीसवाँ स्थान या अमुकवां स्थानवहाँ इन चौसठ स्थानों में से उस संध्या का स्थान (पृ. १४३ से १४५ में) देख लेना।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि लध्यपर्याप्तक यानी अपर्याप्तक किसी भी जीव की अवगाहना जघन्य से प्रारम्भ होकर अपने निर्वृत्यिपर्याप्नक (अपर्याप्तक) की उत्कृष्ट अवगाहना पर
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