Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 12
________________ ग्रन्थ के स्वच्छ एवं शीघ्र मुद्रण के लिए हिन्दुस्तान पार्ट प्रिन्टर्स, जोधपुर के कर्मचारीगण मेरे धन्यवाद के पात्र हैं। प्रस्तुत गुन्थ की जो कुछ उपलब्धि है, वह सब इन्हीं श्रमजील धर्मनिष्ठ पुण्यात्माओं की है। मम्पादन-कार्य में रही भूलों के लिए स्वाध्यायी विद्वानों से सविनय क्षमा चाहता हूँ। भद्रं भूयात् । अलम् विज्ञषु । जवाहरलाल मोतीलाल जैन वकतावत, भीण्डर * जीवकाण्ड के कतिपय कठिन प्रसंगों का खलासा * (१) केवली - समुद्धात (पृ.० ६१-६२; ७२६) केवली समुद्रात ८ समयों में होता है। (भ. प्रा. २१०६) प्रथम समय में दण्ड समुद्घात होता है । दूसरे समय में कपाट समुद्घात होता है । नीसरे समय में प्रतर तथा चौथे में लोकपुरण समुद्घात होता है। पांचवें समय में प्रात्मप्रदेश पुनः प्रतर रूप हो जाते हैं। छठे समय में कपाट रूप, सातवें समय में दण्डाकार तथा पाठवें समय में मूल शरीर के प्राकार म्प हो जाते हैं। (भ. प्रा. २१०६, रा. पा. १२०/१२/७७ तथा धवल १८५) समुद्घान के यही समय होसे, नः नहीं: यहाँ मूल ग्रन्थ में पृष्ट ६१-६२ तथा ७२६ पर जो कहा है कि पांचवें समय में सयोगकेवली विवरगत (लोक के सर्व प्रदेशों तक फैले हुए) आत्मप्रदेशों का संवरगा (संकोच, सिकूलाब, छिपादया समेटना) करते हैं; इस वाक्य का अर्थ यह है कि चतुर्थ समय में लोकपुरण समुद्घात के अनन्तर पंच पंचम समय में लोकपुरण को समेटकर प्रात्मप्रदेशों को प्रतररूप कर देते हैं। अर्थात पंचम समय मे दो काम होते हैं .-लोकपूरण समुद्घात का समेटना अर्थात् संत्रोच करना या उपसंहार करना या नाश करना या समाप्त करना या रोकना तथा दूसरा काम है प्रनर समुद्घात रूप ग्रान्मप्रदेश कर देना । वास्तव में तो ये दोनों दो काम नहीं होकर एक काम रूप ही हैं। क्योंकि लोकपुरण पर्याय का विनाश (यानी उपसंहार)ही प्रतर पर्याय का उत्पाद है अथवा लोकपुरण पर्याय का संकोच ही (समेटनाही) वहाँ प्रतररूप उत्पाद का कारण हो जाता है। जिस समय पूर्व पर्याय का नाश होता है उसी समय तो उत्तर पर्याय का उत्पाद होता है। नाण (उपसंहार या संकोच) तथा उत्पाद रूप पर्याय में समयभेद नहीं होता। (आप्तमीमांसा ५६. धवल ४३३५, पंचाध्यायी पूर्वार्ध २३४ प्रादि) अत: पांचवें समय में लोकपुरण पर्याय का उपसंहार ( =- नाश) अथवा संकोच ( -- सिमटाव, रोक होना तथा प्रतर पर्याय का उत्पाद होना; ये दोनों काम होते हैं । जिसका सरल अर्थ यह होता है कि पंचम समय में नोकपुरमा पर्याय का अभाव तथा प्रतर पर्याय का प्रादुर्भाव ( उत्पाद) होता है। आगे भी इसी तरह कहना चाहिए। यथा छठे समय में प्रतर समेटकर (पनर का उपमहार कर) कपाट रूप प्रारम प्रदेश करते हैं, सान समय में कपाट का उपसंहार (नाश राप्ति) करके दण्डरूप यात्मप्रदश करते हैं 1 पाठवं समय में दण्इरूप प्रात्मप्रदेशों का आकार नष्ट करके (उपसंहृत करके या उनको संकृत्रित करके) सर्बप्रदेश मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् मूल शरीराकार हो जाते हैं । (क्षपणासार ६२७, जयधवल १६/१५६-६०) कोई प्राचार्य पाठवा ममय मूल शरीर में प्रवेश का नहीं गिनते हैं, क्योंकि उम्म अन्तिम (अष्टम) समय में नो रवशरीर में प्रवस्थान है। उनकी दृष्टि में समुद्घात के सात ही समय होते है। इस [१८]

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