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चतुर्विंशति स्तोत्र
सद्ग्ज्ञान में झलकता है । अतः यह ज्ञान की निर्मलता का स्वभाव है जब समस्त विश्व को अपने ज्ञान का विषय बना लें, पर वास्तव में आप तो आप में लीन रहते हो | इस दृष्टि से विवेचन और विचार करने पर आप तो बोधमात्र आत्मतत्त्व लीन हो, निर्विकार हो । जिस धाम को आपने प्राप्त किया है वह सर्वोपरि है, इसमें क्या आश्चर्य ! आपका ज्ञान असीम है । जितना तीन लोक है इससे भी अधिक ऐसे अनन्त लोक भी क्यों न आ जायें तो भी यह वृद्धिंगत होकर अखण्ड, अचल और अविनाशी ही रहता है | अतः भगवान आफ्का वर्द्धमान नाम सुप्रसिद्ध, आगम प्रमाण द्वारा सुव्यवस्थित और अगम्य है । अर्थात् आत्मस्थित होकर भी ज्ञानालोक द्वारा सर्वव्यापी हैं । हम लोगों के लिए यह महाद्भुत चरित्र क्यों न होगा ? अवश्य ही कौतूहल उत्पन्न करने वाले अनोखे चारित्र के धनी हो । आपकी मुक्ति धाम तो और ही अधिक अद्भुत और आश्चर्यकारी है । क्योंकि हम छद्मस्थों के ज्ञान से निराला है अतः सर्वप्रकारेण आपका बर्द्धमान नाम सार्थक और संसार सागर को पार कराने वाला है । संसार सागर का तीर आप ही ज्ञात कर अन्य भव्यों को अवगत कराने में सक्षम है । अतः आपकी अद्भुत महिमा है || २४ ।।
___ जो भव्यजीव उपर्युक्त चतुर्विंशति तीर्थंकरों की नामावली का सतत अविकल रूप से ध्यान करते हैं, चिंतन का विषय बनाते हैं, भावना भाते हैं वे चिदात्मस्वरूप का पान कर अर्थात् ज्ञात कर सम्पूर्ण संसार को भी अवगत कर लेते हैं । अर्थात् जिन नामावली के ज्ञाता स्व-पर के ज्ञाता लीलामात्र में हो जाते हैं । इस प्रकार का ज्ञान और ज्ञानी आपके वहिर्भूत सिद्धान्ती कोई भी अन्य नहीं हो सकता | आचार्य श्री महावीर कीर्ति स्वामी का अकाट्य निर्णय है कि जिन्हें अमर आत्मरस अमृत का पान करना है वे चिदानन्द रस लीन जिनगुणनामावली का गान, ध्यान व चिंतन करें ।। २५ ।।