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चतुर्यिशति स्तोत्र. में आपके द्वारा प्रकट किये गये हैं | अतः त्रैकालिक सत्य स्वरूप ही निर्धान्त प्रतीत होता है | चूंकि आपका क्षायिकज्ञान स्वयं अभ्रान्त होने से उससे निःसृत तत्त्व भी प्रमाणित होना स्वाभाविक ही है | विधा विद्या रूप ही है अर्थात् ज्ञान चेतना स्वरूप है जिसका स्वभाव जानना ही है, जड़ अचेतन है, वह जान नहीं सकता । परन्तु आपकी केवलज्ञानमयी विद्या अलौकिक है वह स्वयं ज्योतित होकर अन्य समस्त जड़-चेतन पदार्थों को भी यथा तथा रूप से प्रकाशित करती है | स्वयं ज्ञानघनरूप रस से परिपूर्ण ही रहती है, ज्ञानगुण से भिन्न अन्य अनन्तशक्तियाँ भी आत्मा में समाहित ही रहती हैं, परन्तु वे सब एकाश्रयी होते हुये भी कोई भी एक-दूसरी रूप परिणत न होती हैं और न होंगी ही । ऐसा आपका अटल सिद्धान्त है जो अकाट्य है और अचल है । चैतन्य सदा-चिद् रस-चेतना रस भरित ही रहता है । ज्ञान और सुख अविनाभावी है । अस्तु, आपका चिदानन्द सतत सुखानन्दरस प्रपूरित रहता हैं । उदीयमान सुखशान्ति वाले 'पार्च' नाम सार्थक है ॥ २३ ॥
अचलित चित परिणाम रूप आपका स्वभाव है | आप अपने चैतन्य स्वभाव में ही लीन रहते हैं | चेतन ही आत्मा है और आत्मा ही चेतना है । यह चैतन्य चिस्मात्र परिणाम ही आत्मा का अपना स्वभाव है । उसी को आपने आत्मसात् किया है । संसार का प्रलय तथा पालन आप ही अपनी ज्ञान गरिमा द्वारा करते हैं । अभिप्राय यह है कि संसार, उत्पाद ब विनाशरूप होता हुआ भी अनाद्यनिधन है । इस रहस्य को आप ही ज्ञात कर सके और अन्य भव्य जीवों को समझाया, तो भी आप यथाजात, यथारूप
और यथास्थान मुक्तिधाम में विराजे रहे । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के उत्थान-पतन जो स्वभाव से वर्तमान भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में हो रहा है, उसके ज्ञाता-दृष्टा और उपदेष्टा होने से आपको सृष्टा-हन्ता व पालक: कहा जा सकता है परन्तु यह व्यवहार मात्र ही है निश्चयनय से तो आप न रागी हैं न द्वेषी ही । इसलिए किसी के कर्ता-धरता व पालक नहीं हो सकते । लोकत्रय स्वभाव से उत्पाद विध्वंसी हैं वह जैसा है वैसा ही आपके