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चतुर्यिशति स्तोत्र करने वाला चित् चैतन्य तेजोमय एकत्व लिए आप ही का ज्ञान है अतः हे अरनाथ जिन आप ही परमेश्वर हो अन्य कोई नहीं ।। १८ ।।
अर्थ :-हे मल्लिजिन ! आपकी देशना में आत्मतत्त्व का अत्यन्त मार्मिक विवेचन है जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सकता | आत्मा नाना गुणों की अपेक्षा भिन्न भिन्न होते हुए भी एक रूप सिद्ध होती है, एक रूप होकर भी भेद रूप भी है | भिन्न भिन्न होकर भी एकरूपता ही लिये हैं । यह व्यवस्था द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयदृष्टियों के पृथक्-पृथक् प्रयोग करने पर सम्यक सिद्ध होती है, दोनों नयों का एक साथ प्रयोग करने पर न भेद हैं न अभेद ही है किन्तु भेदाभेदात्मकरूप है । परन्तु भेदरूपता का त्याग कर भी अपने में परिपूर्णता को प्राप्त करती है अर्थात् संसारावस्था में कर्मानुसार प्रेरित हो नानारूपों में हो रही वही आत्मा जब प्रेरक कर्म , नो कर्म और भावकर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाती है, सकल परभावों से रहित शुद्ध एकरूप चिन्मय प्रतिभासित होती है । अभिप्राय यह है कि नयातीत अवस्था प्राप्त होने पर भेद व अभेद, एक व अनेकादि विकल्प ही नहीं रहते मात्र चिदाकार चित् रूप ही रहता है । यह अवाग्गोचर म्वरूप मल्लिनाथ के ही शासन में संभवित है । अतः सर्वोपरि होने से आपका 'मल्लि' नाम पूर्ण सार्थक है || १९ ।।
मुनिसुव्रतजिन ! सम्यग्ज्ञानरूपी पादप को उत्पाटित-उखाड़ कर भी पुनः आरोपित ही किया अर्थात् क्षायोपशमिक से क्षायिक बनाकर और अधिक सुदृढ़ व स्थायी बना दिया । आरोपित करने पर उसे कूटस्थनित्य नहीं होने दिया । इस प्रकार नित्यानित्य रूपता ही प्रदान की क्योंकि वस्तुस्वभाव वैसा ही है । संसारस्थिति में परिणमन पर निमित्तक था संसारातीत अवस्था में अगुरुलघुगुण द्वारा स्वाभाविक स्वतः हो रहा है । यह ज्योति नित्य उच्चरूप में प्रकाशमान रहेगी । अशेष विश्व को अपने निर्मल प्रकाश से व्याप्त कर अच्युत ही अपने ही में समाहित रहेगी । केवलज्ञान