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चतुर्विशति स्तोत्र
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अर्थ :- हे भगवन् प्रत्येक आत्मा अपने स्वामीय गुणों से परिपूर्ण होता है आप भी अपने ही अनन्तधर्मों से परिपूर्ण हैं क्यों कि एक द्रव्य के गुणधर्म अन्य द्रव्य के कदाऽपि नहीं हो सकते । अतः स्वात्मस्थ होकर भी आपके ज्ञान में त्रैलोक्यवर्ती पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं परन्तु आप उन रूप नहीं होते और न ही वे पदार्थ ही आप रूप होते हैं । वस्तु धर्म ही इस प्रकार का है कि धर्मों से निरपेक्ष नहीं होती हैं, प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने ही गुण-पर्यायों से युक्त रहते हैं । समान धर्मात्मक अन्य जीवात्मा भी अनन्त ज्ञानात्मक हैं परन्तु प्रत्येक अनन्त सिद्ध अपनी-अपनी सत्ता लिए ही होते हैं । उनका ज्ञान गुण के द्वारा ही प्रसरितरूप अर्थात् सर्वव्यापी पना सिद्ध है । इस प्रकार धर्म-धर्मी का अकाट्य, अचल, एकरूप सम्बन्धी धर्म का निरुपण करने वाले धर्मनाथ जिन का "धर्म" नाम सार्थक है ।। १५ ॥
अर्थ :- संसार में परस्पर विरोधी पदार्थ भरे हैं | तत्त्वों में स्वाभाविक विरोध पाया जाता है । यथा रवि की किरणें उदित होते समय कमल कलिकाओं को विकसित कर देती हैं वे ही अस्ताचल में जाते समय उन्हें अविकसित बन्द कर देती हैं | परन्तु भगवन् ! शान्तिनाथ स्वामी आप स्वयं ऐसे अद्भुत शान्तरस से प्रपूरित हैं कि उस चैतन्य स्वरूप चिदानन्दरस केवलज्ञान की रश्मियों में जाति-विरोधी-स्वभाव से विरोध रखने वाले प्राणी-यथा सर्प-नकुल, विडाल-मूषक, मयूर-सर्प आदि भी वैर-विरोध विस्मृत कर मैत्री भाव को प्राप्त होकर एक सूत्र में बंध जाते हैं । अतः आप एक मात्र शुद्ध चैतन्य स्वभाव में ही निमग्न हैं | इसी से पूर्णभरे हैं । चित्कला की प्रभा चारों ओर प्रस्फुटित प्राणी मात्र की उसी चैतन्य की ज्योति को विकसित करने का अमर सन्देश प्रदान करती है । अतः सम्पूर्ण विश्व को परम शान्ति के प्रदाता आपका "शान्ति" नाम यथार्थ है । विश्व में अनेक भास्थमान पदार्थ हैं, परन्तु सबका विषय सीमित है । भगवन् । आपका कैवल्य सूर्य सर्वलोक व्यापी और सर्वकालव्यापी होने से एकरूपता
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