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चतुर्विशति स्तोत्र भगवन् ! श्रेयांस स्वामिन् आपने तत्त्व निरूपण करते समय वस्तु को उत्पाद, व्यय, धौव्य-त्रैरूप्य निरूपण किया है | प्रति समय ये तीनों एक साथ रहकर पदार्थ की स्थिति को स्थित करते हैं । यद्यपि यह कथन कि नित्य भी नाश को प्राप्त होता है और विनष्ट भी उत्पाद प्राप्त करता है तथा नाशोत्पत्ति करता हुआ भी ध्रुवता को नहीं त्यागता यह सम्पूर्ण व्यवस्था उत्कर्षपने से आपके द्वारा ही प्रणीत है और एकान्तवादियों-जो वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक कहते हैं, तर्क की कोटी पर कषते ही छिन्न-भिन्न हो जाती है । और आप ही का सिद्धान्त यही सत्य है, ऐसा ही है यह विशेष प्रकर्ष को प्राप्त होता है | अतः आप ही इस श्रेय को प्राप्त हैं कि यथार्थ व्यवस्थित कर वस्तु को नष्ट होने से रक्षा करते हैं । अतः आपका "श्रेय:।' नाम यथार्थ ही है । उदाहरण से हम समझें कि आपकी या किसी की उंगली सोधी है, किसी ने कहा इसे टेढ़ी करी, वक्र करते ही उसी क्षण सरलता नष्ट हुयी, वक्रता उत्पन्न और उंगली यथावस्थित रही । अतः इस प्रकार का सर्व हितैषी तत्त्व आपही द्वारा प्रतिपादित है ।।११।।
अर्थ :- वस्तु तत्त्व सत् धर्म युक्त होते हुए असत् धर्म लिए भी रहे यह व्यवस्था आपही के सिद्धान्त में है | पृथक् 'समवाय' सम्बन्ध मानने वालों के यहाँ घटित नहीं हो सकती । चूं कि वस्तु स्वयं स्वभावतः सदसद् रूप है उसे अन्य सहायक की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि स्वभावोऽतर्क गोचरः स्वभाव में किसी का क्यों, क्या तर्क नहीं चलता । षङ्गुणी हानि वृद्धि द्वारा यथाजात वस्तु में उत्पाद-नाश होते ही रहते हैं । वस्तु स्वरूप इसी प्रकार का ऐसा ही प्रतिभासित होता है । सत्ता वैभव असत्ता प्रतिपक्षी के रहते ही सुशोभित होता है | क्योंकि विरोध से गुण मर्दित होकर ही निखरते हैं । परन्तु यह विरोध एक दूसरे का घातक नहीं अपितु साधक है । वैषेशिक मतानुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छहों को समवाय सम्बन्ध करता है । ये सभी स्वतंत्र हैं | जो स्वयं स्वतंत्र
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