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. चतुर्विशति स्तोत्र
हो ही जाते हैं । अतः वीतराग प्रभो! आपके ज्ञानोदय से विश्व के प्राणी भव्यरूप पद्म स्वतः प्रफुल्ल आनन्दित होते हैं । अतः आपका "पद्म प्रभ" नाम सार्थक है । ___अर्थ- द्रव्य में वाच्यवाचक भाव शब्दों की अपेक्षा बनता है । द्रव्य में स्थित अनेक गुण एक दूसरे रूप परिणमन नहीं करते । क्योंकि गुण वाचक हैं और द्रव्य वाच्य है । यद्यपि गुण, द्रव्य दोनों ही सत् प्रत्यय सहित हैं तो भी दोनों में प्रदेशभेद नहीं होने से वे एक रूप भी हैं | वथा आत्मा द्रव्य है, ज्ञान, दर्शन, सुखादि गुण हैं । प्रत्येक गुण सत् प्रत्यय से ज्ञातव्य है तो भी ये सब आत्मप्रदेशों से बहिर्भूत अन्याश्रयी नहीं हैं । गुण-गुणी. वाच्य-वाचक भाव आदि सत् प्रत्यय वाले भिन्न-२ दृष्टिगत होते हैं यह व्यवहार नयापेक्षा सही है । परन्तु द्रव्यापेक्षा एकाश्रयी होने से एक रूप ही हैं | सुपाश्च प्रभो! आपके सिद्धान्त में ही समवाय सम्बन्ध की यथार्थ प्रसिद्धि है | आपके गुणों की प्रकर्षता दिखाते हुए गुणस्तवन कर आचार्य श्री ने विशेष तत्त्व दर्शित किया है ॥ ७ ॥
अर्थ:- लौकिक चन्द्रमा की ज्योत्सना चन्द्र में निमग्न रहने पर भी वाह्य निमित्तों (राहु. उभय पक्षों, मेघों) से पराभूत हो यदा-कदा प्रकाशित होती है । कभी अप्रकट भी रह जाती है, पराश्रितता ऐसी ही क्षणिक होती है । परन्तु चन्द्रप्रभ जिनेश्वर की स्वाधीन चित्त चैतन्य ज्योत्सना में परिपूर्ण ज्ञानचन्द्र की सघन-परिपूर्ण प्रकाशपुञ्जयुत निरन्तर - अविगम, निद्वंद प्रकट प्रकाशित ही रहती है । अपने परिपूर्ण रहकर पर प्रकाशक भी है यह अलौकिक चन्द्रिका आप ही में निहित है । अतः आपका चन्द्रप्रभ" यह अन्वर्थ सार्थक नाम है || ८ ॥
अर्थ:- वस्तु स्वभाव सामान्य-विशेषात्मक हैं । अर्थात् विधि-निषेध विरोधी होकर भी एक ही आश्रय में रहते ही हैं । क्योंकि उभय धर्म