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चतुर्विशति स्तोत्र सत्ता के लिए हैं भला उनमें अन्य का गुण धर्म क्यों जाये ? आपने ही इस तथ्य को निराकृत करा है ! क्योंकि सम्बन्ध तीन प्रकार का होता है- १. संयोग सम्बन्ध, २. समवाय सम्बन्ध और विशेषण-विशेष्यभाय सम्बन्ध । ये तीनों ही सम्बन्ध वस्तु तत्त्व के स्वरूप को बचाने में समर्थ नहीं हैं | प्रथम तो दो स्वतंत्र पदार्थ ही सिद्ध करता है, तीसरा भी दो स्वतंत्र द्रव्यों में घटित होता है । समवाय वस्तुरूप ही नहीं है । द्रव्य ही नहीं है । अत: वस्तु स्वयं सन्मात्र ही है, गुण भी सन्मात्र हैं परन्तु गुण-गुणी में सर्वथा भेद नहीं होता । कथचित् भेदाभेद लिए रहता है । यह आपने ही वस्तु स्वरूप निरूपण किया है । अतः आपका "वासुपूर, नाम सार्थक है आपही देवेन्द्रों से पूज्य हैं ।। १२ ।।
___ अर्थ :- जो अतीत था वही आज वर्तमान हो रहा है, तथा जो वर्तमान है । वहीं भविष्य होगा, जो भविष्य हैं वह भूत होगा यह अनोखी व्यवस्था है । हे विमल देव इसी आधार से आपने वस्तु कालिक सत्ता लिए है यह सम्यक् प्रकार सिद्ध कर दिया है । भावी ही वर्तमान है | इस प्रकार की अटपटी व्यवस्था को आपने अपने विमलज्ञान-पूर्ण ज्ञान द्वारा यथार्थ प्रतिपादित किया है । आपका "विमल" नाम यथातथ्य है ॥ १३ ॥
अर्थ :- मेय-पदार्थ समन्तात् चारों ओर से अपने गुणों से परिपूर्ण होता है अतः वह एक अद्वैत है । परन्तु यह अद्वैतता विषम है क्योंकि इसी के द्वारा वस्तु का द्वैत भाव भी सिद्ध होता है । यह चित्र-विचित्र महिमा आपके ही निर्मल-अतीन्द्रिय ज्ञान के तेज में प्रकाशित होती है | यह व्यवस्था, अनन्त, शान्त सुखद और सर्वमान्य है | आपका ज्ञान-केवलज्ञान भी द्वैताद्वैत स्वभाव को लिए है । द्रव्य दृष्टि से एक है -- अद्वैत है और अनन्तपर्यायों से आकीर्ण होने से द्वैत स्वभावी है । अतः समस्त वस्तुएँ भी इसी प्रकार द्वैताद्वैत स्वभाव लिए हैं । आप मद, कषायादि रहित निर्मल अनन्त तेजधारी हैं । अतः "अनन्त" नाम पूर्णतः सार्थक है || १४ ।।