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वृषभदेवस्तुति । संसारलीलामवगम्य राज्यं
त्यक्तं च कर्तुं वरमोक्षराज्यम् ॥१०॥ अर्थ- उन भगवान् वृषभदेवने अपनी राज्यलक्ष्मीका उपभोग धर्मपत्नीके समान धर्मपूर्वक और श्रेष्ठ नीतिके अनुसार किया था । तदनंतर संसारकी लीलाको समझकर मोक्षका श्रेष्ठ राज्य प्राप्त करनेके लिये इस राज्यका त्याग कर दिया था। चत्वारि कर्माणि निहत्य शीघ्र
जातोसि वंद्यश्च नरामरेन्द्रैः । मुक्तकंगनायाः परमः प्रियश्च
भोक्ता सदानन्तचतुष्टयस्य ॥११॥ अर्थ- तदनंतर भगवान् वृपभदेवने शीघ्र ही चारों घातिया कर्मोका नाश किया और इन्द्र चक्रवर्ती आदि सबके द्वारा वंदना करने योग्य होगये । वे भगवान् मुक्तिरूपी स्त्रीके परमप्रिय होगये ओर सदाके लिये अनतचतुष्टयके भोक्ता होगये। स्वर्मोक्षदः शान्तिसुखप्रदश्च
विश्वस्य देवो मुवि भव्यबंधुः। भव्याशयानां भवतापहर्ता
दातासि तेभ्यः स्वसुखस्य राज्यम् ।१२। ___ अर्थ- हे देव, आप स्वर्गमोक्षको देनेवाले हैं शांतिसुखको देनेवाले हैं, समस्त भूमंडलके देव हैं और संसारमें भन्य