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श्री चतुर्विंशति जिनस्तुति |
धर्मस्य चिन्हं स्वपरोपकारो वस्तुस्वभावः समतापि धर्मः । ध्यानोपवासः सुतपो जपोपि
शीलं सुदानं यजनं प्रतिष्ठा ॥८॥ धर्मोस्त्यहिंसा परमोस्त्यचौर्य
त्या सूर्च्छा मिथुनस्य सत्यम् । धर्मोदितं श्रेष्ठदयाप्रधानं
धर्मं सुभव्याः परिपालयन्तु ॥ ९ ॥
अर्थ - अपने आत्माका और दूसरे जीवोका उपकार करना, धर्म में लगाना धर्मका चिन्ह है अथवा प्रत्येक पदार्थका स्वभाव ही धर्म है, अथवा समता धारण करना भी धर्म है, अथवा ध्यान करना, उपवास धारण करना, श्रेष्ठ तप करना, जप करना, शील पालन करना, दान देना, पूजा करना और प्रतिष्ठा करना आदि सब धर्म है । अथवा अहिंसा परमधर्म है, अचौर्यव्रतका पालन करना परमधर्म है, सत्यव्रत का पालन करना परम धर्म है और मूर्च्छा तथा मैथुनसेवनका त्याग करना अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना और परिग्रहका त्याग करना भी परमधर्म है । इसप्रकार जिसमें श्रेष्ठ दया ही प्रधान है ऐसा धर्मका स्वरूप जो भगवान् धर्मनाथने निरूपण किया है उसका पालन भव्य जीवोंको सदा करते रहना चाहिये |