Book Title: Chaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Ravjibhai Kevalchand Sheth

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Page 145
________________ १६ श्रीशान्तिसागरचरित्र । ___अर्थ- वहांपर गुरुराजके निषेध करनेपर भी पंडितोंने मुनियोने, श्रावकोने तथा सब संघने अत्यंत सुयोग्य समझकर उन मुनिराज शांतिसागरको उत्तम आचार्य पद दिया । ध्यानं तपो जपं कुर्वन् स्थितवान् कतिचिदिनम् । धर्मे च स्थापयन् भव्यान् चातुर्मासं व्यतीतवान् ॥ अर्थ- इसप्रकार जप-तप और ध्यान करते हुए वे मुनिराज कुछ दिनतक वहां ठहरे और अनेक भव्यजीवोंको धर्ममें स्थापन करते हुए उन्होंने चातुर्मास व्यतीत किया। चन्दप्पाथ सुअण्णप्पा चामण्णादि सुश्रावकाः । गोमट्टदेवयात्रार्थ कृतवन्तः सुप्रार्थनास् ॥६॥ तत्प्रार्थनां च स्वीकृत्य चचाल शांतिसागरः । स्थलेऽरण्ये गिरी ग्रामे कुर्वन् ध्यानं सुपुण्यदम्॥६२ बहुभिः श्रावकैः सार्धं कुर्वन् मंगलमुत्तमम् । जिनेंद्रभक्तभव्यानां चित्तमल्हादयन् विभुः ॥६३॥ पुरं ग्रामं वनं देशमुलंध्य सर्वपुण्यदः । शनैः रसूर राज्यस्यान्तर्गतं गतवान् सुधीः ॥६४ अर्थ- तदनंतर चंदप्पा, अण्णापा, चामण्णा आदि श्रेष्ठ श्रावकोंने श्रीगोमट्टदेवकी यात्रा करनेके लिये आचार्य श्रीशान्तिसागरसे प्रार्थना की। अत्यंत बुद्धिमान् और सबू जीवोंको पुण्यप्रदान करनेवाले आचार्य शांतिसागर उनकी

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