Book Title: Chaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Ravjibhai Kevalchand Sheth

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Page 159
________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र । अर्थ-वे आचार्य धर्मकी वृद्धि करते हुए धीरे धीरे अनुक्रमसे चलकर निजाम राजाके द्वारा पालिन आलंदनगरमें पहुचे । धर्मध्यानं सदा कुर्वन् मंगलं कारयन वरम् । जयशद्धं प्रकुर्वद्धिः श्रावकैमंगलध्वनिम् ॥१९॥ राजलोकैर्वणिग्वयः प्राविशन्नगरं मुदा । भव्यान संबोध्य संस्थाप्य स्वधर्मे च ततोऽचलत् ॥ अर्थ-मार्गमें वे आचार्य सदा धर्मध्यान भी करते जाते थे और मंगल भी कराते जाते थे। वहां पहुंचनेपर मंगल ध्वनि और जयजय शब्द करते हुए श्रावकोने तथा राजलोक और व्यापारियोंने बडे आनंदके साथ नगरमें प्रवेश कराया। तदनंतर वहांपर भव्यजीवोंको उपदेश देकर और उनको अपने धर्ममें स्थापनकर वहांसे आगे चले। . मार्गे विरोधमूलानि गुरुरुन्मूल्य मूलतः। प्रसारयन् दयाधर्म शान्ति सर्वत्र कारयन् ॥२१॥ सुधर्ममंगलं कुर्वन प्राप्तो नागपुरं शनैः । अपूर्व स्वागतं तत्र निखिलैः श्रावकैः कृतम् ॥२२ ____अर्थ- वे आचार्य मार्गके लोगोंमें होनेवाले वैरविरोधको जडमूलसे नष्ट करते जाते थे, दयाधर्मको वृद्धि करते जाते थे, सर्वत्र शातिका राज्य स्थापन करते जाते थे और श्रेष्ठ जिनधर्मका मंगल करते जाते थे। इसप्रकार धीरे धीरे चलकर

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