Book Title: Chaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Author(s): Lalaram Shastri
Publisher: Ravjibhai Kevalchand Sheth

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Page 180
________________ . " श्रीशान्तिसागरचरित्रा यशोधरेण भव्येन नेमिसागरयोगिना। द्वाभ्यां हि ब्रह्मचारिभ्यां क्षुल्लकेन समं तदा॥१३॥ ___अर्थ- उस गोरल क्षेत्रको अत्यंत मनोहर, एकान्त और उपद्रवरहित देखकर गुरुवर्य आचार्यने मुनिनेमिसागरके साथ क्षुल्लक भव्य यशोधरके साथ और दो ब्रह्मचारियोंके साथ वहींपर वर्षायोग धारण किया। शान्तिदं विविधं ध्यानं प्रकुर्वन् मोक्षदं तपः। गोरले पत्तने धीरःस्थितवान् बोधयन् जनान्॥१४ __ अर्थ-वे आचार्य शांतिको देनेवाले अनेक प्रकारके ध्यानको तथा मोक्ष देनेवाले तपश्चरणको करते हुए और जीवोंको उपदेश देते हुए गोरलनगरमें ठहरे।। गोरलापंचक्रोशं हि दूरमीडरपत्तनम् । ध्यानयोग्यं शुभं क्षेत्र पर्वतैरपि वेष्टितम् ॥१५॥ तत्र गत्वा ससंघेन वर्षायोगं सुपुण्यदम् । कुर्विति स्वामिवर्येणाज्ञापितो धर्मसागरः॥१६॥ __ अर्थ- आचार्यवर्य श्रीशान्तिसागरने मुनिराज सुधर्मसागरको आज्ञा दी कि गोरलसे पांच कोस दूर ईडर नगर है। वह क्षेत्र शुभ है, ध्यानके योग्य है और पर्वतोंसे वेष्ठित है। तुम संघके साथ वहीं जाकर पुण्य बढानेवाला वर्षायोग धारण करो।

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