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श्रीशान्तिसागरचरित्र । उपवासाधिकास्तत्र कृताः संघेन सूरिणा। रथोत्सवो जिनेशानां चिरकालेन नाभवत् ॥६२॥ महिम्ना शांतिसिंधोश्च सर्वत्र भ्रमितः पुरे। एवं धर्ममहोद्योतं कृत्वाचलत्ततः पुरः ॥६३॥
अर्थ- वहांपर आचार्यमहाराजने संघके साथ बहुतसे उपवास किये। मथुरानगरमें भगवान् जिनेन्द्रदेवका रथोत्सव बहुतदिनसे नहीं निकला था वह भी आचार्य शांतिसागरकी महिमासे समस्त नगरमें घूमा। इसप्रकार धर्मका महाउद्योत करते हुए वे आचार्य आगे चले। ईर्यासमिति भावेन शुद्धं मार्ग विलोक्यन् । अनेकग्रामनगरे बोधयन् सुनिश्रावकार ॥६॥ उपसर्ग सहन धीरः स्वात्मानं चिंतयन् तदा। चचाल स्थापयन भव्यान जिनधर्म सुखप्रदे॥६५
अर्थ- वे धीरवीर आचार्य ईर्यासमितिके भावोसे शुद्ध मार्गको देखते जाते थे, अनेक गांवोमें तथा नगरोमें मुनि और श्रावकोंको उपदेश देते जाते थे, उपसर्गोको सहते जाते थे, अपने आत्माका चितवन करते जाते थे और सुख देनेवाले जिनधर्ममें अनेक भव्योंको स्थापन करते जाते थे। अलीगढ पुरे रम्ये नन्दनलाल शास्त्रिणे । ज्ञानसागरमाख्याय वितीर्ण क्षुल्लकवतम् ॥६६॥
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