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श्रीशान्तिसागरचरित्र ।
१५ मुनिराज ध्यान करनेके लिये बैठ गये। इतनेमें वहांपर एक बहुत बडा सर्प आया। उसने उन मुनिराजके शरीरको पत्थरका खंड समझा और इसीलिये उनके शरीरपर चढकर उसने वहांपर विशेष रीतिसे क्रीडा की। उससमय वे सुनिराज शांतिसागर ध्यानमें लीन थे, पाषाण खंडके समान निश्चल थे और जीवन मरणमें समानता धारण करते थे। इसीलिये वे अपने शुभ ध्यानसे रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए। फिर वह सर्प उन मुनिराजके चरणोंको स्पर्शकर और अपने आत्माको पविल कर अपने स्थानपर चला गया। इत्येवं विविधं ध्यानं कुर्वनिच्छानिरोधकम् । स्वात्मानं चिन्तयन् धीरः चातुर्मासं व्यतीतवान् ।
अर्थ- इसप्रकार इच्छानिरोधरूपी अनेक प्रकारके ध्यानको करते हुए और अपने शुद्ध आत्माका चिंतन करते हुए उन धीरवीर मुनिराजने चातुर्मास पूर्ण किया । मार्गे संबोधयन भव्यान् समडोलिपुरं गतः। चातुर्मासं च कृतवान् जनान ज्ञात्वा सुधार्मिकान्॥ ___अर्थ- मागमें अनेक भव्यजीवोंको उपदेश देते हुए वे मुनिराज समडोली नामके गांवमें पहुंचे और वहांके लोगोंको धार्मिक समझकर वहींपर चातुर्मास योग धारण किया। निषिद्धैर्गुरुणा दत्तमाचार्यपदमुत्तमम् । पंडितैर्मुनिभिःश्राद्धैः संधैर्मत्वा सुयोग्यकम् ॥५९