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श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति |
भावेन येनैव भवेद्धि मानो हिंसापि भावेन भवेद्धि तेन ||१९|| भावेन येनैव सवेद्धि माया हिंसापि भावेन भवेद्धि तेन । भावेन येनैव भवेद्धि लोभो
हिंसापि भावेन भवेद्धि तेन ||२०||
अर्थ -- आत्माके जिन परिणामों से क्रोध होता है, उन्हीं परिणामोंसे हिंसा भी अवश्य होती है तथा जिन परिणामोसे मान होता है उन्हीं परिणामोंसे हिंसा होती है । इसी प्रकार आत्मा के जिन परिणामोसे माया होती है, उन्हीं परिणामोंसे हिंसा होती है और आत्माके जिन परिणामों से लोभ होता है उन्हीं परिणामोंसे हिंसा अवश्य होती है । दूरे हि चास्तां परपीडनं च भावोऽपि हिंसा परपीडनस्य ।
उक्तारत्य हिंसैव निजात्मवासः परात्मवासो नियमेन हिंसा ॥ २१ ॥ अर्थ---- दूसरे जीवोंको पीडा देनेकी बात तो अलग है, दूसरे जीवों को पीडा देनेके परिणाम होनेसे ही हिंसा अवश्य हो जाती है । इसीलिये भगवान जिनेन्द्रदेवने अपने आत्मा में निवास करना अहिसा बतलाई है और आत्माको छोडकर कपायों में निवास करना हिंसा बतलाई है ।