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१०६ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । ध्यायन्ति चित्ते च नमन्ति भक्त्या
श्रृण्वन्ति ये केपि पठन्ति नित्यम् । षट्खंडराज्यं च चिरं सुभुक्त्वा . स्वर्गापवर्ग स्वमुखं लभन्ते ॥३॥
अर्थ- जो कोई भव्यजीव अपने हृदयमें इस स्तोत्रका ध्यान करते है, भक्तिपूर्वक इसको नमस्कार करते हैं, सदा सुनते हैं वा पढते हैं वे छहों खंडोंके राज्यको चिरकालतक भोग कर स्वर्गमोक्षको तथा आत्मसुखको प्राप्त होते हैं ।
चतुर्विंशतिशतेन्दे द्विषष्ठ्यधिकवत्सरे । वीरे मोक्षं गते पूर्णे कार्तिके चेडरे पुरे ॥४॥ शान्तिसागरशिष्येण कुंथसागरयोगिना। कृतं पूर्णमिदं स्तोत्रं शंभवस्वामिमंदिरे ॥५॥
अर्थ- भगवान् महावीर स्वामीके मोक्ष जानेके बाद चौवीससौ बासठवें वर्षमें कार्तिक शुक्ला पौर्णिमाके दिन ईडर नगरमें श्री शंभवनाथके चैत्यालयमें आचार्य श्री शांतिसागरके शिष्य मुनिराज श्रीकुंथुसागरने यह स्तोत्र पूर्ण किया है।
इति श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुतिःसमाप्ता ।