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श्रीशान्तिसागरचरित्र ।
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_____ अर्थ- किसी एक समय वे क्षुल्लक ध्यानमें बैठे हुए थे
उनको ध्यानमें बैठे देखकर किमी सर्पने आकर उन क्षुल्लकके । सब शरीरका स्पश किया। इसप्रकार अपने जन्मको सफल मानता हुआ और वार वार उनके शरीरको स्पर्श करता हुआ, उनको नमस्कार करता हुआ और स्मरण करता हुआ, प्रसन्न चित्तको धारण करनेवाला वह सर्प अपने स्थानको चला गया। मेरुतुल्यं गुरोश्चित्तं न चचाल मनागपि । ईदृशं निश्चलं ध्यानं कलौ ज्ञेयं सुदुर्लभम् ॥३५॥ ___ अर्थ- परंतु गुरुराजका हृदय मेरुपर्वतके समान निश्चल था इसलिये वह रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुआ। ऐसा निश्चल ध्यान इस कलियुगमें अत्यंत दुर्लभ समझना चाहिये । मार्गे संबोधयन् भव्यान् श्रीवाहुबलिनस्ततः । वन्दनार्थं गतः कृत्वा वन्दनां क्षुल्लकः सुधीः॥३६ कुर्वन् जपं तपोध्यानं स्थितवान् कतिचिद्दिनम् । रम्ये भव्यजनानंददायके गिरिमस्तके ॥३७॥ ___अर्थ- तदनंतर मागमें अनेक भव्यजीवोंको उपदेश देते हुए वे क्षुल्लक बाहुबलिकी वंदनाके लिये गये । तथा चंदना करके भव्यजीवोंको आनंद देनेवाले ऐसे उस मनोहर पर्वतके मस्तकपर जप, तप और ध्यान करते हुए कुछ दिनतक वहां ठहरे।