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श्रीशान्तिसागरचरित्र । गातगौड अपने सब कुटुंबी लोगोंको मित्रवर्गीको तथा धर्मात्मा भाईयोंकों पूछकर गुरुके आश्रममें पहूंचे । चतुर्विशतिशते चत्वारिंशदधिके शुभे । वीरे शिवंगत प्राप्तः श्रीदेवन्द्र गुरुं गृहात् ॥२७॥ ज्येष्ठशुक्ला त्रयोदशां गृहीत्वा क्षुल्लकवतम् । गुरूपकण्ठे स्थितवान् क्षुल्लकः कतिचिद्दिनम् ।।२८ ___अर्थ- बीरनिर्वाण शुभसवत् चौबीम सौ चालीसमें वह पाटील सातगौड अपने घरसे चलकर श्रीदेवेन्द्रगुरुके समीप , पहुचे और ज्येष्ठ शुल्ला त्रयोदशीके दिन उन्होने क्षुल्लकके व्रत धारण किये । तदनंतर वे क्षुल्लक कुछ दिनतक अपने गुरुके समीप रहे। पुनर्निजगुरुं नत्वापृच्छ्य संसारतारकः । गुरोराज्ञां समादायाचलत्ततः सुखप्रदः ॥२९॥
अर्थ- तदनंतर सब जीवोको सुख देनेवाले और संसारसे पार कर देनेवाले उन क्षुल्लकने अपने गुरुको नमस्कार किया और गुरुकी आज्ञा लेकर वहांसे चले। प्रकुर्वन विधिनाचायाँसुपलग सहन तथा । भव्यानां बोधनार्थ हि कागलं नगरं गतः ॥२९॥
. अर्थ-- विधिपूर्वक चर्या करते हुए और उपसर्ग सहते हुएं वे क्षुल्लक भव्यजीवोंको सदुपदेश देनेके लिये कागल नगरमें पहुंचे।