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प्रशस्तिः ।
प्रशस्तिः ।
न्यायं नयं व्याकरणं न छन्दो जानाम्यलंकारविशेषशास्त्रम् । तथापि भक्त्या भवनाशकं च
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स्वशदं स्तोत्रमिदं पवित्रम् ॥ १॥
विद्यागुरोरेव सुधर्मनाम्नः संपूज्यमूर्तेः कृपया मया हि । श्री कुंथुनाम्ना मुनिना स्वबुध्या कृतं मनोज्ञं निजराज्यहेतोः ॥२॥
अर्थ — मैं श्रीकुंथुसागर नामका मुनि न तो न्याय शास्त्रको जानता हूं, न नयोंके शास्त्रको जानता हूं, न व्याकरण जानता हूं, न छंदः शास्त्र जानता हू और न अलंकार के विशेषशास्त्रोंको जानता हू । तथापि जिनकी मूर्ति वा शरीर अत्यंत पूज्य है ऐसे मेरे विद्यागुरु मुनिराज सुधर्ममागरको कृपासे मैंने अपने आत्माका राज्य प्राप्त करनेके लिये भगवान् चतुर्विंशति तीर्थकरों की भक्ति से प्रेरित होकर अपनी बुद्धिके अनुसार अत्यंत मनोहर, पवित्र, स्वर्गमोक्ष देनेवाला और जन्ममरणरूप संसारको नाश करनेवाला यह स्तोत्र बनाया है।
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