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१०४ श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति । तवैव मार्गः शिवसौख्यदर्शी
तव तीर्थं अवनाशकं च ॥२४॥ अर्थ-- हे भगवन् ! इस संसारमें आप ही अत्यंत निर्मल और सर्वोत्कृष्ट देव हैं, आपकी ही बाणी जन्ममरणरूप संसारको नाश करनेवाली है, तथा आपका ही कहा हुआ मार्ग मोक्षसुखको दिखानेवाला है और आपका ही कहा हुआ तीर्थ घा मत पंचपरावर्तनरूप संसारको नाश करनेवाला है। वंद्योऽमरेन्द्रश्च महान सुवीरो
वीरोऽतिवीरः खलु वर्धमानः । श्रीसन्मतिः सन्मतिदायको वा
मां पाहि शीघ्रं विषमाद्भवाब्धेः॥२५॥ अर्थ- जो भगवान महावीर स्वामी इन्द्रोंके द्वारा वंदनीय हैं, जो महान् सुवीर अर्थात् महावीरके नामसे प्रसिद्ध हैं, वीरनाथके नामसे प्रसिद्ध हैं, अतिवीरके नामसे प्रसिद्ध हैं, वर्धमानके नामसे प्रसिद्ध हैं और सन्मतिके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा वास्तवमें जो सन्मतिको देनेवाले हैं, वे भगवान महावीर सामी इस संसाररूपी विषम समुद्रसे शीघ्र ही मेरी रक्षा करे ।
॥ इति ॥