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श्री मुनिसुव्रतनाथस्तुति ।
सच्चामरैरनुपमैर्वरकांतिपुंजैः शुभैः प्रभो ! शुभतरैरिव पुण्यपूरैः । शान्तिप्रदश्च शुशुभे मुनिसुव्रतश्च क्षीरेण मेरुरिव नाथ ! तवाभिषेके ॥७॥
अर्थ- हे नाथ! हे प्रभो ! जिसप्रकार अभिषेक के समय मेरुपर्वत क्षीरसागर के जलसे शोभायमान हुआ था, उसी प्रकार अत्यंत शांति देनेवाले भगवन् ! आप पुण्यके समूहके समान अत्यंत शुभ और श्वेत तथा श्रेष्ठ कांतिके समूहके समान, उपमारहित श्रेष्ठ चामरोंसे शोभायमान हो रहे थे । छत्रत्रयं कथयति प्रभुतां त्रिलोके जातं सुवर्णमणिरत्नचयैः पवित्रैः । भव्याचन्तु कथयन्निति मोक्षमार्गे खे दुंदुभिर्ध्वनति भव्यसुखप्रदस्ते ॥८॥
अर्थ- हे भगवन् ! पवित्र सुवर्णमणि और रत्नोंके समूहसे बने हुए आपके तीनों छत तीनों लोकोंमें आपकी प्रभुताको सूचित करते हैं । तथा " भो भव्य जीवो। तुम लोग मोक्षमार्ग में आकर चलो " इसी बातको सूचित करता हुआ और भव्य जीवोंको सुख देनेवाला यह आपका दुंदुभि आकाश में बज रहा है 1
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सान्निध्यतो भगवतस्तरुरप्यशो को भव्यः सदा गतभयश्च सुखी बभूव ।