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श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । दुःखप्रदा चंचलराज्यलक्ष्मी--
स्त्याज्या हि भव्यैः सुकृतैश्च लब्धा ॥२॥
अर्थ- हे भगवन् नमिनाथ ! आपने अत्यंत शांति देनेवाली और परम विशुद्ध ऐसी सदा रहनेवाली मोक्षलक्ष्मीका उपभोग करनेके लिये बडे पुण्यसे प्राप्त होनेवाली परतु भव्य जीवोंके द्वारा त्याज्य और अत्यंत दुःख देनेवाली ऐसी चंचल राज्यलक्ष्मीका त्याग ही कर दिया था। मिथ्यात्वजाले पतितांश्च जीवान
त्यन्तदीनानवलोक्य तेषाम् । उद्धारहेतोहदि भावितश्च
पापधर्मः सततं त्वयैव ॥३॥ अर्थ- हे भगवन् ! जो जीव मिथ्यात्वरूपी जालमें पडकर अत्यंत दीन हो रहे हैं, उन्हें देखकर उनके उद्धार करनेके लिये ही आपने बहुत दिनतक अपायविचय नामके धर्मध्यानका अपने हृदयमें चिंतन किया था ।
इच्छानिरोधं भवनाशकं च __ तपो हि कुर्वन् समशान्तितोयम् । स्वात्मोत्थचिद्धावरसं पिबंस्त्वं
ध्यानैः सुशुक्लैश्च भयंकगणि ॥४॥