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श्रीनमिनाथस्तुति। वत्त्वारि कर्माणि जवेन दग्भ्वा
नरामरेन्द्रैः प्रणुतः स्तुतश्च । त्वमेव पूज्यो हृदि चिन्तनीयो ___ जातोऽसि वंद्यः सुखशान्तिदाता ॥५॥
अर्थ- हे भगवन् ! आपने अपनी समस्त इच्छाओंको रोककर संसारको नाश करनेवाला घोर तपश्चरण किया था, समता और शांतिरूपी जलको पीते हुए तथा अपने आत्मासे उत्पन्न हुए शुद्ध चैतन्यस्वरूप रसको पीते हुए आपने अपने श्रेष्ठ शुक्लध्यानसे भयंकर चारों घातियाकर्मीको शीघ्र ही जला दिया था और इस प्रकार आप इन्द्र चक्रवर्ती आदिके द्वारा नमस्कार करने योग्य होगये हैं, स्तुति करने योग्य होगये हैं, पूज्य होगये हैं, हृदयमें चितवन करने योग्य होगये हैं, वंदनीय होगये हैं और सुख शांतिके देनेवाले होगये हैं। तद्धर्मतः षोडशभावनातो
बद्धं च तीर्थंकर पुण्यकर्म । तस्योदयादेव विभो सुदिव्या
सभा बभी ते वरदेशना च ॥६॥ अर्थ- हे भगवन् ! उस अपायविचय नामके धर्मध्यान के चिंतन करनेसे तथा सोलहकारणभावनाओंके चितवन करनेसे आपने तीर्थकर नामके पुण्यकर्मका बंध किया था । हे प्रभो ! उसी तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे आपकी वह समवसरण