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श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति। शरीरभोगाद्वरराज्यलक्ष्म्याः
जातो विरक्तो वर पार्श्वनाथः ॥४॥ अर्थ- आकाशमार्गसे अकस्मात् पडती हुई और नाश होनेवाली ताराको ( उल्कापातको) देखकर वे श्रेष्ठ भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी शरीरसे, भोगोंसे और श्रेष्ठ राज्यलक्ष्मीसे भी विरक्त होगये थे।
आपृच्छ्य बंधून् सचिवादिवर्गान् ___साम्राज्यलक्ष्मी तृणवद्विहाय । निजात्मसाम्राज्यविधातुकामः
इच्छानिरोधं धृतवान् तपश्च ॥५॥ अर्थ- तदनंतर उन पार्श्वनाथ भगवानने अपने सब भाईबंधुआदि कुटुम्बियोंसे पूछा, मंत्री आदि राज्यके लोगोंसे पूछा और तृणके समान विशाल राज्यलक्ष्मीको छोडकर अपने आत्माका साम्राज्य जमानेकी इच्छासे इच्छाको रोकनेरूप घोर तपश्चरण धारण किया था। पार्श्वप्रमोस्तप्तरजांसि शीर्षे
क्षिप्तानि दुष्टेन भयंकराणि । कृतापि मेघस्य भयंकरैव
पूर्वस्य वैरात्कमठेन वृष्टिः ॥६॥