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श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति । अर्थ- जो अपने आत्माके प्रदेशोंमें सदा लीन रहते हैं, भगवान जिनेन्द्र देवके भक्तोंके सिवाय अन्य लोग जिनका चितवन भी नहीं कर सकते और आत्माके सदा साथ रहते हैं, ऐसे सम्यग्दर्शन आदि मुख्य मुख्य अनन्त गुणोंको पाकर वे भगवान धर्मनाथ स्वामी उन्हीं गुणोमें तृप्त होगये थे। मिथ्यात्वयुक्ताः परधर्मिणो ये
श्वभ्रेनिगोदेऽखिलदुःखदे वा। . पतन्ति जीवाल परिपातयन्ति
मां पाहि तेभ्यः करुणासमुद्र ॥४॥ ___ अर्थ- हे करुणाके सागर ! परधर्मको माननेवाले मिथ्यादृष्टी जीव सब प्रकारके दुःख देनेवाले नरकमें अथवा निगोदमें स्वयं पडते हैं और अन्य जीवोको डालते हैं । हे देव ! हे करुणासागर ! उन मिथ्यादृष्टीयोंसे मेरी रक्षा कीजिये । स्वधर्मदौ ते चरणौ पवित्रौ
यजन्ति ये निर्मलचित्तभव्याः । तेषां प्रणीतो निजधर्म एषः
श्रीधर्मनाथेन भवप्रशान्त्यैः ॥५॥ अर्थ- हे भगवन् ! आपके चरण कमल परम पवित्र हैं और आत्मधर्मको देनेवाले हैं। ऐसे आपके चरण कमलोंकी जो निर्मल हृदयको धारण करनेवाले भव्य जीव पूजा करते हैं