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श्रीधर्मनाथस्तुति। उनके जन्ममरणरूप संसारको शांत करनेके लिये भगवान् धर्म नाथने ही इस जैनधर्मका निरूपण किया है। धर्मप्रसादात्सकलश्च जीवाः
संसारसारं धनरत्नराज्यम् । धर्मानुकूलं च कुटम्बवर्ग
स्वर्गापवर्ग स्वसुखं लभन्ते ॥६॥ अर्थ- उस धर्मके ही प्रसादसे संसारके समस्त जीव संसारभरमें सारभूत धनरत्न और राज्यको पाते हैं, धर्मानुकूल कुटंबको पाते हैं, स्वर्ग मोक्षको पाते हैं और आत्मसुखको प्राप्त होते हैं। वंद्याश्च पूज्याश्च नरामरेन्द्रैः
ये केपि धर्मे सुमुखा भवन्ति । निद्या दरिद्रा विमुखा स्वभावा
स्कुटम्बहीनाश्चिरदुःखिनश्च ॥७॥ अर्थ- हे देव ! जो पुरुष आपके कहे हुए धर्मके अनुकूल चलते हैं, वे स्वभावसे ही इन्द्र चक्रवर्तियोंके द्वारा पूज्य और वंदनीय हो जाते हैं तथा जो पुरुष आपके कहे हुए धर्मसे विमुख होते हैं, वे स्वभावसे ही निंद्य दरिद्री कुटंबरहित और सदाके लिये दुःखी हो जाते हैं ।