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श्री चतुर्विंशति जिन स्तुति ।
रूपी कन्या और कामधेनु इस संसार में उसकी दासीके समान
बनी रहती हैं ।
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त्वया विनाहं मुनिकुंथुनामा संसारसिंधौ भ्रमितश्च भीमे । कृत्वा कृपां मां भवतो दयाव्धे ! चोदृत्य तस्मात्स्वसुखं च देहि ॥ ८ ॥
अर्थ- हे भगवन् ! आपके विना मैं कुंथुसागर नामका मुनि इस भयानक संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण कर रहा हूं । हे दयासागर ! अब आप कृपाकर मुझे इस संसार सागर से निकालकर शीघ्र ही आत्मसुख दीजिये ।
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