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श्रीअभिनन्दननाथस्तुति । अर्थ- हे देव ! जो पुरुष भपके धर्मतत्वको पढते हैं उनके हृदय में न तो भ्रम उत्पन्न होता है, न शंका उत्पन्न होती है और न चिंता उत्पन्न होती है। हे नाथ ! जो पुरुष आपके नामरूपी मंत्रका स्मरण करते हैं, उनको दुष्टग्रहोंसे उत्पन्न हुआ प्रकोप भी कमी नहीं होता है। पापं च मह्यं विषमं च दुःखं
ददाति तीव्र च भवे भवस्मिन् । कुत्रापि शान्तिन विना त्वयैव
मां पाति तस्मान्न च कोपि देवः ॥६॥ आनन्ददेशे वरदिव्यधाम्नि
स्वस्वादपिण्डे स्वरसे स्वराज्ये । नित्ये स्थितिर्देव ! तवैव बुधवा
त्वत्पादपने पतितोस्मि रक्ष ॥७॥ अर्थ- हे प्रभो ! ये पाप मुझे इस भवभवमें अत्यंत तीव्र और विषम दुःख देते हैं । आपके विना कहीं भी शान्ति दिखाई नहीं देती और उन दुःखोंसे कोई भी देव मेरी रक्षा नहीं करता ! हे देव, आपकी स्थिति ऐसे आनन्दमय देशमें है, जो सदा समानरूपसे बना रहता है, जो सर्वोत्तम दिव्य स्थान है, जो अपने आत्माके आस्वादनका पिंड है. अपने ही आत्मासे उत्पन्न हुए रससे भरपूर है और जहांपर केवल अपने