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श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति |
न त्वत्समानच कलंकमुक्तः कुत्रापि धो मयका जिनेन्द्र ||३||
अर्थ- हे प्रभो ! इस लोकमें में दोपरहित देवको इंडनेके लिये सदाकाल से परिभ्रमण करता रहा हूं परंतु हे जिनेन्द्र ! मैने आपके समान दोपरहित देव कहीं नहीं पाया। आनन्दपिण्डेऽप्यचले स्वराज्य
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मोदप्रदे शान्तिरसे च नित्ये । ज्ञानात्मके न त्वयि कोपि रागो द्वेषोपि केनापि कदापि दृष्टः || ४ ||
अर्थ - हे भगवन् ! यद्यपि आप आनंदके पिंड हैं, अचल हैं, आत्मस्वरूप हैं, अनंत सुख देनेवाले हैं, शातिरससे भरपूर हैं, नित्य हैं और अनंत ज्ञानस्वरूप हैं तथापि आपमें न तो कभी किसीने राग देखा है और न कभी किसीने द्वेप देखा है आप रागद्वेप दोनोसे रहित हैं ।
त्वामेव मुक्त्वा भगवन् पदार्थाः कालेन सर्वे विकृता भवन्ति ।
विचार्य चैवं तु पुनः पुनश्च मोक्षप्रदे ते पतितोस्मि युग्मे ||५|| अर्थ- हे भगवन् ! आपको छोडकर बाकीके जितने पदार्थ हैं वे सब समयानुसार बदलते रहते हैं उनमें विकार