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श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । करते हुए भव्य जीवोंको परम विशुद्धस्वभावमें स्थिर रहनेके लिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये । शुद्धप्रदौ ते चरणौ विहाय
शुभाशुभेऽहं भ्रमितोस्मि नित्यम् । युग्मे ततस्ते पतितोऽस्मि शुद्धे
क्षिप्तुं क्रमेणैव शुभाशुभं च ॥८॥ अर्थ- हे भगवन् ! आपके चरण कमल शुद्धभावोंको देनेवाले हैं उनको छोड कर ही मैं सदासे आजतक शुभ अशुभ भावोंमें परिभ्रमण करता रहा हूं। हे नाथ ! अब इसी लिये मैं अनुक्रमसे शुभ अशुभ भावोंको छोडनेके लिये शुद्ध भावोंको देनेवाले आपके चरण कमलोंमें आ पड़ा हूं।