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श्रीवासुपूज्यजिनस्तुति । ४९ बनाने आदिमें थोडासा पाप होता है तथापि उसका कुछ असर नहीं होता। वह पाप उस पूजासे वा दानसे ही नष्ट हो जाता हैं। इसलिये भव्य जीवोंको प्रमाद छोडकर मुनियोंको दान देनेमें और भगवानकी पूजा करने में सदा अपनी प्रवृत्ति करते रहना चाहिये। भावा त्रयः सन्ति शरीरभाजां
शुभाशुभौ शाश्वतकश्च शुद्धः। क्रमेण यत्नैरशुभं विहाय
शुभे प्रवृत्तिं कुरु शुद्धलब्ध्यै ॥६॥ तत्रापि चैवं च शुभे वसेयु
चौरा यथा वन्दिगृहे वसन्ति । स्थातुं स्वभावे परमे विशुद्धे
कुर्वन्तु भव्याश्च सदा प्रयत्नम् ॥७॥ अर्थ- जीवोंके परिणाम तीन प्रकारके हैं; शुभ, अशुभ और सदा रहनेवाले शुद्धभाव । इनमेंसे अनुक्रमसे यत्नपूर्वक अशुभ भावोंका त्याग कर देना चाहिये और शुद्धभावोंकी प्राप्तिके लिये शुभभावोंमें प्रवृत्ति करनी चाहिये । उन शुभ परिणामोंको धारण करते हुए इसप्रकार रहना चाहिये जैसे चोर बंदीखाने में रहता है। चोर बंदीखानेमें रहता हुआ भी उसे त्याज्य समझता है। उसीप्रकार शुभ परिणामोंको धारण