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२२ श्रीचतुर्विगतिजिनन्तुति । र्थिक नयम देखा जाय तो न विधिए है और न निपंधरप है। ह नाथ ! यह पदार्थीका यथार्थपरूप आपने ही बतलाया है। पर्यायदृष्टया कथितं त्वयैव
त्याज्यं च हेयं ग्रहणं हि योग्यम् । द्रव्यार्थदृष्टया ग्रहणं कदापि
त्याज्यं न लोके भवति स्वभावात् ॥८॥ अर्थ- भगवन ! आपने जो पांगार्थिक नयम पदार्थीका स्वम्प हंय और उपादेय का बतलाया है। उनमेने इंग पदाध न्याग करने योग्य बनला है और उपादेय पदाथ ग्रहण करने योग्य बतलाये है। परंतु द्रव्याथिक नयी न तो कार पदाय न्याग करने योग्य है और न ग्रहण करने योग्य है। क्या कि किमी भी पदाथका स्वभाव न्याग करने योग्य वा ग्रहण करने योग्य नहीं है। त्वमेव देवः परमात्मरूपः
सुरेन्द्रपूज्योपि नरेंद्रपूज्यः । स्याद्वादरूपापि तवैव वाणी
यथार्थतत्त्वप्रतिपादिनी च ॥९॥ अर्थ-- इसीलिये हे भगवन परम आप्तरूप देव आप ही हैं, आप ही इन्द्रोके द्वारा पूज्य है, और आप ही चक्रवर्तियोके द्वारा पूज्य हैं। तथा स्थाद्वादरूप आपकी वाणी भी यथार्थ तत्वोको प्रतिपादन करनेवाली है।