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श्रीपद्मप्रभस्तुति ।
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दृष्टी जीवोंको सर्वथा अगम्य है। परंतु वही आत्माकी कांति आपके धर्ममें लीन रहनेवाले भव्य जीवोंको सहज रीतिसे प्राप्त हो जाती है। न क्वापि वांछा कृतकृत्ययोगा
न कोपि हर्षः समभावयोगात् । तथापि बंद्या भवति प्रवृत्तिः
सर्वस्य शान्त्यै च भवाशानाम् ॥६॥ अर्थ- हे भगवन् ! आप कृतकृत्य हो गये हैं, इसलिये किसी भी पदार्थमें आपकी इच्छा नहीं रही है। तथा समस्त पदार्थोमें आप समताभाव धारण करते हैं इसलिये आपके किसी प्रकारका हर्प भी नहीं होता है तथापि आपके समान महापुरुपोंकी प्रवृत्ति सब जीवोंके लिये वंदनीय होती है और सब जीवोंके लिये शान्ति देनेवाली होती है।
दिव्यध्वनिं ते विनिशम्य भव्याः ____ पारं भवाब्धेः भवितुं समर्थाः । तथैव चानन्दरसे प्रवृत्ति
कर्तुं स्वधर्मे स्वपदे भवन्ति ॥७॥ अर्थ- हे देव ! आपकी दिव्यध्वनिको सुनकर भव्य जीव इस संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये समर्थ हो जाते हैं, अपने आत्मानन्दरूपरसमें प्रवृत्ति करनेको समर्थ हो जाते