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श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । अर्थ-हे प्रभो ! आप प्रमाके निधि हैं, आपके शरीरसे उत्पन्न हुई करोंडो सूर्योंके समान आपकी कांतिको देखकर सूर्य और चन्द्रमाकी कान्ति सदाके लिये मंद हो गई है और समयपर यह नष्ट भी हो जाती है।
तब प्रभावाद्धि समन्तभद्रः
। स्याद्वादशस्त्रैः निजवाक्प्रभावैः। मिथ्याप्रलापं वदतः प्रमूढान्
विजित्य शीघ्रं शिवमार्गहीनान् ॥४॥ सद्धर्मतीर्थे सुखशान्तिमूले
भूपादिमुख्यान हि नियोज्य शीघ्रम् ! सुकृत्य वीरो वरपुण्यमूर्ति
बभूव भावी भुवि तीर्थकर्ता ॥५॥ __ अर्थ- हे भगवान् ! आपके ही प्रभावसे आचार्य समन्तभद्र स्वामीने स्याद्वादरूपी शस्त्रोसे और अपने वचनोंके प्रभावसे मोक्षमार्गसे रहित तत्वोके मिथ्याउपदेशको देनेवाले और अत्यंत मृढ ऐसे लोगोंको तथा शिवकोटि आदि राजाओंको शीघ्र ही जीत लिया था और सुख तथा शान्तिके मूल कारण ऐसे श्रेष्ठ धर्मरूपी तीर्थमें उनको बहुत शीघ्र लगा दिया था। इसप्रकार वे समन्तभद्रस्वामी आपके ही प्रभावसे श्रेष्ठ कार्योंके करनेमें शूर वीर होगये थे, पुण्यकी श्रेष्ठ मूर्ति बन गये थे और • इस संसारमें ही होनहार तीर्थकर बन गये थे।