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३८ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । इमीलिये जो संसाररूपी समुद्रमें अवश्य पडना चाहते हैं उन्हें मनुष्यशरीरको धारण करनेवाले उलूक ही समझना चाहिये । वाकायचित्तं विमलं च कृत्वा
विहाय मोहं भवशेगमूलम् । स्वमोक्षदं ते वरनाममंत्रं
स्मरन्तु भव्या भवरोगशान्त्यै ॥८॥ अर्थ- इसलिये भव्य जीवोको अपने मनवचनकाय को निर्मल कर और संसाररूपी रोगके मूल कारण ऐसे मोहको छोडकर संसाररूपी रोगको शान्त करनेके लिये स्वर्ग-मोक्ष देनेवाले आपके नामरूपी मत्रको सदा स्मरण करते रहना चाहिये।