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श्री शीतलनाथस्तुति ।
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वधबंधन के अनेक दुःख सहन करता है उसीप्रकार वें जीव भी भोगोंके सेवन करनेके लिये अनेक प्रकार के वधबंधन के दुःख सहते हैं ।
षट्खण्डराज्यस्य निजात्मश (न्तेः स्वर्गापवर्गस्य सुखस्य दाता । व्याधेर्विरोधस्य जवेन हर्ता
त्वमेव भव्यस्य सदा शरण्यः ॥ ६॥
अर्थ- हे भगवन् ! आप छहो खंड राज्यको देनेवाले हैं, अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाली परमशान्तिको देनेवाले हैं और स्वर्ग मोक्ष सुख देनेवाले हैं । इसके सिवाय आप रोग और विरोधको बहुत शीघ्र नाश कर देते हैं इसलिये हे प्रभो ! भव्य जीवोंके लिये आप ही सदा शरण हैं ।
अटन्तु सर्पाः कुटिलाच मार्गे गच्छन्ति यावन्त च वामलूरे । भ्रमन्तु जीवाश्च तथा कुमार्गे आयान्ति यावन्न भवत्सुमार्गे ॥७॥
अर्थ- हे नाथ ! सर्प मार्गमें कुटिलतासे तभीतक चलते हैं जबतक कि वे अपनी वामीमें नहीं जाते । इसीप्रकार ये संसारी जीव कुमार्ग में तभीतक परिभ्रमण करते हैं जबतक कि वे आपके कहे हुए सुमार्ग में नहीं आते।