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________________ 1 श्री शीतलनाथस्तुति । ने वधबंधन के अनेक दुःख सहन करता है उसीप्रकार वें जीव भी भोगोंके सेवन करनेके लिये अनेक प्रकार के वधबंधन के दुःख सहते हैं । षट्खण्डराज्यस्य निजात्मश (न्तेः स्वर्गापवर्गस्य सुखस्य दाता । व्याधेर्विरोधस्य जवेन हर्ता त्वमेव भव्यस्य सदा शरण्यः ॥ ६॥ अर्थ- हे भगवन् ! आप छहो खंड राज्यको देनेवाले हैं, अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाली परमशान्तिको देनेवाले हैं और स्वर्ग मोक्ष सुख देनेवाले हैं । इसके सिवाय आप रोग और विरोधको बहुत शीघ्र नाश कर देते हैं इसलिये हे प्रभो ! भव्य जीवोंके लिये आप ही सदा शरण हैं । अटन्तु सर्पाः कुटिलाच मार्गे गच्छन्ति यावन्त च वामलूरे । भ्रमन्तु जीवाश्च तथा कुमार्गे आयान्ति यावन्न भवत्सुमार्गे ॥७॥ अर्थ- हे नाथ ! सर्प मार्गमें कुटिलतासे तभीतक चलते हैं जबतक कि वे अपनी वामीमें नहीं जाते । इसीप्रकार ये संसारी जीव कुमार्ग में तभीतक परिभ्रमण करते हैं जबतक कि वे आपके कहे हुए सुमार्ग में नहीं आते।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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