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४२ . . श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । त्वया विनाहं कुटिले कुमागें
दीनो हि भूत्वा अमितः कृपाब्धे । जाता त्वमेवेति च सर्वजन्तो
त्विा प्रमोस्ते पतितोस्मि युग्मे ॥८॥ अर्थ- हे नाथ ! हे कृपाके समुद्र ! आपके विना मैं दीन होकर नरकादिक कुटिल मार्गामें परिभ्रमण कर रहा हूं। तथा हे प्रभो! आप समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले हैं यही समझकर मैं आपके चरण कमलोंमें आ पडा हूं।