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२० श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । । अत्यंत शुद्धं सुखशान्तिदं वा
तेनात्मशुद्धिः स्वसुखस्य सिद्धिः॥३॥ अर्थ- जो तत्वों का स्वरूप अपेक्षापूर्वक है वह नयशास्त्रसे सिद्ध है, आत्माका ज्ञान करानेवाला है, अत्यंत शुद्ध है और सुख शान्तिको देनेवाला है। उन्हीं अपेक्षापूर्वकतत्वोंसे आत्माकी शुद्धि होती है और आत्म सुखकी प्राप्ति होती है। हे प्रभो, ऐसा तत्वोका स्वरूप आपने ही बतलाया है। पर्यायदृष्टया च बहुप्रकारो
द्रव्यादिदृष्टयास्ति ततो विरुद्धः। एकोप्यनेकः परमार्थदृष्ट्या
वक्तव्यहीनः सकलः पदार्थः ॥४॥ अर्थ- आपके कहे हुए समारके समस्त पदार्थ पर्याय दृष्टीसे अनेक प्रकार हैं और द्रव्यार्थिक नयसे उसके विरुद्ध एक ही प्रकार हैं । इस प्रकार पदार्थोका स्वरूप एक प्रकार भी है और अनेक प्रकार भी है। तथा वही पदार्थ परमार्थ दृष्टिसे वा निश्चय नयसे अवक्तव्य है। अर्थात् न एक रूपसे कहा जा सकता है ओर न अनेक रूपसे कहा जा सकता है। इसलिये अवक्तव्य है। सतः पदार्थस्य सदेव लोके
वृद्धिविनाशौ भवतस्स्वभावात् ।