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श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति |
ही आत्माका राज्य है । यही समझकर मैं आपके चरणकमलों में आ पडा ह; हे नाथ, मेरी रक्षा कीजिये ।
त्वं विश्वबंधुश्च दयासमुद्रत्वमेव दाता स्वसुखस्य नित्यम् । श्रीमांच धीमान्निपुणस्त्वमेव
त्वं देहि मह्यं स्वसुखस्य राज्यम् ॥८॥
अर्थ - हे प्रभो ! आप संसारमात्र के बंधु हैं, दयाके समुद्र हैं और आत्मसुखको सदा देनेवाले हैं । आप ही श्रीमान् हैं, बुद्धिमान हैं और आप ही निपुण हैं । इसीलिये हे नाथ, मेरे लिये भी आत्मसुखका राज्य दे दीजिये |