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श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति। खिन्नाय जीवाय प्रभो त्वया हि
धर्मः प्रणीतश्च दयां विधाय ॥३॥ अर्थ- यह शरीर अपने आत्मासे भिन्न है, मलिन है और पुद्गलादिक परपदार्थसे बना हुआ है ऐसे इस शरीरमें कमके निमित्तसे पड़ा हुआ यह जीव खेद खिन्न हो रहा है। हे प्रभो ! ऐसे जीवोंके लिये ही आपने दयाकर अपने अहिंसामय धर्मका निस्पण किया है।
क्षुधातृपाव्याधिजरान्तकाल. ___ नीराग्निदुःखैः परिपूरितैश्च । त्याच्यो न धर्मः सुखदः कदाचि
द्दिष्टश्च भव्य रभिनन्दनेन ॥४॥ अर्थ- भृस, प्यास, गेग, बुढापा, मृत्यु, जल, अग्नि आदिके दुःखोसे ओतप्रोत होनेपर भी भव्य जीवोंको मुख देनेवाला धर्म कभी नहीं छोडना चाहिये यह उपदेश भगवान् अभिनन्दननाथने दिया है। त्वद्धर्मतत्त्वं पठतां जनानां
भ्रान्तिर्न शंका हृदि कापि चिन्ता । त्वनाममंत्रं स्मरतां जनानां
दुष्टग्रहोत्थो न भवेत्प्रकोपः ॥५॥