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श्रीसुमतिनाथस्तुति । २१ सतो न नाशोस्त्यसतो न वृद्धि__ स्त्वया प्रणीतो ननु सत्स्वभावः ॥५॥
अर्थ- इस संसार में जो पदार्थ सत्स्वरूप है उसीकी स्वभावसे वृद्धि होती है और उसीका नाश होता है। जिस पदार्थकी सत्ता है उसका कभी नाश नहीं होता और जिस पदार्थकी सत्ता नहीं है उसकी कभी वृद्धि नहीं होती, हे नाथ! इसीलिये आपने पदार्थोका स्वरूप सत्स्वरूप ही बतलाया है। भवस्थितश्वो गतिस्वभावः
कर्ता च भोक्ताय्युपयोगरूपः। देहप्रमाणः कथितो हि जीवः
सिद्धोप्यमूर्तों भगवन त्वयैव ॥६॥ अर्थ- हे भगवन् ! आपने जीवका स्वरूप भी नौ प्रकारसे बतलाया है। यथा यह जीव संसारी है, स्वभावसे ही ऊर्ध्वगामी है, कर्ता है, भोक्ता है, उपयोगरूप है, शरीरके प्रमाणके बराबर है और सिद्ध तथा अमूर्त है । विधिनिषे|पि तवैव तीर्थ
इष्टः कथाचव्यवहारदृष्टया। द्रव्यार्थदृष्ट्या न विधिनिषेध
थैवं प्रणीतः परमार्थमार्गः ॥७॥ अर्थ- हे प्रभो ! आपके ही तीर्थमें कथंचित व्यवहार दृष्टीसे पदार्थके स्वरूपमें विधि निषेध बतलाया है। यदि इसका