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चतुर्विंशतिजिनस्तुति । दयामयो मोक्षसुखप्रदश्च
धर्मः प्रणीतो भवतापहारी ॥३॥ अर्थ- भगवान् अजितनाथने इस संसारमें अनेक जीवों को मिथ्यात्वरूपी जालमें दृढ़ताके साथ बंधे हुए और महा दुःखी देखकर संसारक संतापको दूर करनेवाला और मोक्षके सुखको देनेवाला इस दयामयी धर्मका निरूपण किया है। यस्य प्रसादादजितस्य लोके
निजात्मलीनाः स्वरसाद्धि तुष्टाः । ध्यानोपयुक्ता यतयो भवन्ति ___ कारिजालं क्षपितुं समर्थाः ॥४॥
अर्थ-- इन्ही भगवान् अजितनाथके प्रमादसे मुनि लोग अपने आत्मामें लीन हो जाते हैं, अपने आत्मरससे संतुष्ट हो जाते है, ध्यानमें तल्लीन हो जाते है और कर्मरूपी जालको नाश करने के लिये ममर्थ हो जाते हैं। संमाररोगस्य विनाशकं ते
दयामयं निर्मलधर्मतत्त्वम् । ये केऽपि जीवा हृदि धारयन्ति
ते मोक्षसौख्यं सहसाप्नुवन्ति ॥५॥ __ अर्थ-- हे भगवान् ! आपका कहा हुआ दयामय निर्मल धर्मतत्व संमाररूपी गंग को नाश करनेवाला है। इमी