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प्रस्तावना बहुत समय से चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य शांतिसागर महाराज के सौरभ सम्पन्न लोकोत्तर चरित्र से परिचित लोगों की मनोकामना थी कि उन मुनिनाथ की जीवन कथा प्रकाश में लाई जाय जिससे मोहान्धकार में भ्रांत मानव आध्यात्मिक प्रकाश पा मंगल पथ में प्रवृत्ति करे। सुयोग की बात है, सन् १९५१ के पयूषण पर्व के समय बारामती (पूना) में विशेष चर्चा हुई। उस समय पूज्य आचार्य देव चातुर्मास वहां ही व्यतीत कर रहे थे और मैं भी गुरूचरण के समीप पहुंचा था। लोगों से चर्चा के उपरान्त चरित्र निर्माण का कार्य मुझ पर रखा गया और प्रकाशन आदि की आर्थिक व्यवस्था का भार जिनवाणी जीर्णोद्धारक संघ ने स्वीकार किया । ___ पर्युषण पर्व के उपरान्त सिवनी लौटने पर जब मैंने लेखन निमित्त सामग्री का अन्वेषण किया तो मुझे बड़ी निराशा हुई, क्योंकि दो-एक लघु पुस्तिकाओं तथा समाचार पत्रों के अल्प विवरण से चरित्र निर्माण का व्यवस्थित कार्य भी कठिन प्रतीत होता था। मैं चिन्ता में पड़ गया। निराशा ने मुझे घेर लिया। ऐसे अवसर पर अनेक लब्धप्रतिष्ठ लोगों के उत्साहवर्धक पत्र मिले । दानवीर रावराजा श्रीमंत सरसेठ हुकुमचंद जी, इन्दौर का पत्र बड़ा प्राणपूर्ण था। केन्द्रीय लोक सदन (Parliament) के अध्यक्ष श्री मावलंकर से प्राप्त पत्र द्वारा प्रेरणा मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री गोलवलकर ने बड़े उदात्त उद्गारों को व्यक्त करके स्फूर्तिप्रद शब्दों में उत्साहजनक सामग्री प्रदान करते हुए लिखा था कि ऐसे पवित्र और निस्वार्थ सेवा के क्षेत्र में परमात्मा की कृपा से सफलता की उपलब्धि में तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिए। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण जी गुप्त ने अपनी पुण्य भावना को व्यक्त करते हए यह सुन्दर पद्य आचार्य महाराज की अभिवंदना निमित्त लिखा था :
पंथ अनेक, संत सब एक। नत हूँ मैं अपना सिर टेक।
जहाँ अहिंसा का अभिषेक। परमधर्म का वहां विवेक ॥ ऐसी पवित्र स्फूर्तिप्रद सामग्री उल्लास तथा उत्साह देती थी किन्तु जीवन घटनाओं का अल्प परिचय हमें सचिन्त बनाता था। इस कठिन प्रसंग में अन्तःकरण ने परमात्मा की आराधना को उचित बताया, इसलिये मैंने वीतराग तीर्थंकरों की यथाशक्ति समाराधना तथा अर्चा की। उसके फलस्वरूप तथा विविध ग्रंथों के परिशीलन में संलग्नता के कारण धीरे-धीरे उपयुक्त सामग्री मस्तिष्क में प्रतिबिम्बित हो चली। परमात्मा का नाम-स्मरण और आचार्य श्री के चरणों को प्रणाम करते हुए मैं जब लिखने बैठता था, तो विपुल सामग्री मिलती जाती थी।
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